हम भी कर लें……… मन की बात


नीम का पेड़ , खटिया ; मछरदानी ; अंगीठी ; घर की बगिया जिसमे हर मौसम की सदाबहार ताज़ी और हरी सब्जी, घर में एक साइकिल , खपरैल का क्वार्टर , बड़ा सा दालान और उसी में बना बैडमिंटन कोर्ट , ट्रांजिस्टर जिसमे सुबह और शाम के समाचार ! इतवार के दिन चित्रध्वनि से कार्यक्रम के अंतर्गत आने वाली फिल्म का साउंडट्रैक को बाबूजी से छुप कर सुनना और महीने में टपरा टॉकीज (खुले आसमान के नीचे) फिल्म का दिखाया जाना…..
आप सोच रहे होंगे यह क्या लिखा जा रहा है !
जी रील रिवाइंड हो रही है। बहुत पीछे जाएं तो लग रहा है जिंदगी की दौड़ में कहाँ से कहाँ चले आये हैं !
नीम के पेड़ की छाँव कूलर से बेहतर थी ! फोम के गद्दे जिन्होंने आज गठिआ और कमर तोड़ बीमारी दे दी हैं , से कहीं अच्छी खटिआ थीं जिनको रोज कसा जाता था , क्या नींद आती थी ! गुड नाईट और कछुआ छाप से बेहतर मच्छरदानी थीं जिनसे मच्छर बाहर से झांकते मिलते थे ! अंगीठी की आंच में अम्मा ताजा और गरम खाना बनाती ! डाइनिंग टेबल न होकर परिवार घेरा बनाकर जमीन पर पटली पर बैठ कर खाना खाता था !
फ्रिज थे नहीं तो कोशिश यही होती की खाना बचे नहीं, नहीं तो आखिरी में कटोरा भर कर किसी एक को ख़तम करना पड़ता था क्योंकि खाना ख़राब नहीं होना चाहिए ! दैनिक कार्यों के बाद लड़को को दालान में ही नहाना पड़ता था ! ठंडक में पानी गरम अंगीठी पर होता था !
बिजली एक सपना थी सो पढाई लालटेन – लैंप से कर १० बजे रात में सोना अनिवार्य था क्योंकि सुबह ४ बजे ही होनी है नहीं तो बाबूजी लल्ला – भैया कर कान पकड़ कर उठा देंगे ! नियम यही था सुबह की पढाई याद रहती है ! स्कूल पैदल ही जाना है १० से ५ के समय पर ! खेलने की छूट इतनी कि एक तरफ बाबूजी और दूसरी तरफ आप ! मन करे तो खेलिए नहीं तो पढाई ! मेहमान के आने पर कॉपी – किताब लेकर दूसरी तरफ चले जाने में ही भलाई थी नहीं तो यह कौन सुनेगा कि पढाई कर रहे थे कि बातें सुन रहे थे ?
हफ्ते में दो बार बाज़ार लगता था तो मानो दावत हो गयी क्योंकि गोश्त खाने को मिल जाता था ! जिंदगी क्या थी , मस्त थी !
बुखार आने पर Tetracyclin , resticlin और hostacyclin जैसे antibiotics से ऊपर कोई दवा नहीं सुनी वह भी CMO अंकल के कहने पर नहीं तो घर के बने नुक्से या carmative mixture काफी था ! कट -फिट जाये तो देसी इलाज बहुत थे ! चोट लगने पर दूध में हल्दी ! आप चंगे हो ही जाते थे ! टाइफाइड – चेचक जैसी बीमारी मतलब , घर में मुसीबत आ गयी है क्योंकि चर्चा शहर में रहती – स्टेशन मास्टर साहेब के बेटे की तबियत ठीक नहीं हैं ! पोस्ट मास्टर , स्टेशन मास्टर , प्रधानाचार्य या फिर CMO यही “प्रतिष्ठित ” माने जाते थे !
गर्मी में आम एक -दो किलो नहीं टोकरी भर कर लिए जाते और बन्दर बाट में एक के हिस्से में १६-२० आम आते थे ! जाड़े में मछली टोकरी में उतारी जाती थी जिसे आधी भून कर और बाकी अम्मा शाम से बनाना शुरू कर देती थी !
पीछे मुड़कर देखो तो लगता है हम किस अंधी दौड़ की तरफ भागे जा रहे हैं ! यह artificial शैली हमें कहाँ ले आयी है ! किताबो में कैद रह जाएँगी यह यादें और आज की संताने शायद विश्वास ही न माने क्योंकि whatsapp , Facebook और E Mail हमें किस दौड़ में ले जा रहे हैं , पता नहीं !
बाबूजी कहते थे बेटा हमने देशी घी एक रूपया में १६ सेर खाया है , हम मज़ाक में उनकी बात उड़ा देते थे ! अगर कल हम कहेंगे कि हमने गोश्त दो रुपये किलो खाया है तो क्या यह मानेगें , शायद कतई नहीं !
सच बस इतना है हमने रील rewind कर कुछ पुरानी याद आज ताज़ा तब कर ली जब आज तरोई ९० रुपये किलो खरीद कर लाये !
फिर मिलेंगे किसी प्रसंगवश मन के साथ…….

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *